Saturday, June 7, 2008

बढेगा राजस्थानी का श्री भण्डार


महाराणा प्रताप को लेकर जिन लोगों ने भी जो कुछ लिखा है वह उनके जीवन को प्रस्तुत करने के लिए सक्षम है उनके बरे मैं ज्यादा कभी जानने की इच्छा ही नहीं हुयी मगर कोई है जो हमेशा मेरे लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है मेरी जिज्ञासा सबसे ज्यादा किसी शख्स के प्रति है वह है राजस्थानी भाषा के जाने-माने कवि कन्हेयालाल सेठिया. मैंने राजस्थानी को भाषा इसलिए कहा है की देश के क्षेत्रफल के आधार पर सबसे बड़े राज्य मैं बोली जाने वाली बोली है.
जो कई सालों से जब हिन्दी का विकास नहीं हुआ था उससे पहले से ही आम लोगों के द्वारा प्रयोग की जाती रही थी स्वतंन्त्रता संग्राम में भी ये नहीं कहा जा सकता है कि राजस्थान के विभिन्न पत्रों से लेखन के माध्यम के द्वारा हुए प्रयास हुए वे हिन्दी में थे वे भी इसी भाषा में थे उसके पहले राजामहाराजाओं ने इस साहित्य को काफी समृद्ध किया है जाने-अनजाने में ही सही अपने बखान के लिए ही उन्होंने जैसे चारणों और भाटों से लेखन करवाया
और इससे इस भाषा का आदर समृद्ध होता गया.
इस श्री भंडार का किस्सा वैसा ही थे जैसा सरस्वती के धन का होता है कहते है
सरस्वती के धन कि है बड़ी अपरं बात,

ज्यों खर्चे त्यों बढे ज्यों बचने घटी जाय.
राजस्थानी को समृद्ध करने में कई कवियों का बड़ा योगदान रहा. उनका लेखन स्वतंत्रता के बाद भी जारी रखा और जो आज भी जारी है.
पिछले दिनों राजस्थान में राजस्थानी को राज्य भाषा का दर्जा देने की मांग जोरों पर थी राजनीती इसी पर फोकस हो गई, हर पार्टी इसका फायदा लेने को आतुर थी और इसके चलते पता नहीं क्या-क्या होने लगा.
भाजपा के जसवंत सिंह ने कर्नल जेम्स टाड के इतिहास को नकारते हुए नया इतिहास लिखने की घोषणा की थीं. इसी तरह से राजस्थानी के कुछ कवियों ने भी राजस्थानी की मान्यता के लिए अपना अभियान आरंभ किया था मगर उनके इस अभियान से क्या हासिल हुआ किसी को मालूम नहीं है इसके विपक्ष वालों का तर्क है कि जब तक राजस्थानी का मानकीकरण नहीं होता इसे राज्य भाषा का दर्जा कैसे दिया जा सकता है?कुछ दिनों पहले की बात थी जब राजस्थान में इस बात को लेकर ही विवाद हो गया कि किसी अंग्ला विद्धवान ने किसी कवि को कुछ कह ही दिया था कि हो गई तूं-तूं मैं-मैं जो शायद किसी मतलब कि नहीं थी. मगर कभी किसी ने हमारी उस धरोहर की चिंता नहीं की जो बरसों से कूड़े के साथ फैक दी गई है अगर हम नए शीरे से इतिहास लिखते है तो किसके दम पर लिखेंगे उसी के दम पर जिसे हम ठुकरा चुके है
एक उदाहरण है कविवर कन्हेया लाल जी सेठिया की 'पिथल और पाथल' जिसे कभी हमारे कोर्स से हटा दिया गया था और धीरे धीरे पुस्तकालयों ने भी रद्दी में फैक दिया
ऐसा नहीं है कि कोई उसको चाहने वाला नहीं है आज भी उसके कद्रदानों की कोई कमी नहीं है मगर कोई ये बताये तो सही की यह मिले कहाँ से? आज निसंदेह नेट बहुत बड़ा माध्यम है ज्ञान के संचरण का मगर यहाँ भी इसका कंगाल ही है आशा है ये कमी कोई शीघ्र पूरी कर देगा. कोई भी चीज एकदम नहीं बदल जाती है बदलने में वक्त लगता है हो सकता है कि रही राजस्थानी भी आने वाले समय में न रहे मगर फ़िर भी इससे कई गुना आशा इस बात कि है कि राजस्थानी के साथ साथ उनसभी कवियों और लेखकों पर भी काम होगा और हमारे इतिहास के साथ हम अपने महापुरुषों को भी पुनः मूल रूप में पेश करने में सफल होंगे।

सौजन्य से :- स्केम चौबीसइनहिन्दी

2 comments:

Hanvant said...

बांच’र मन घणौ राजी व्हियौ. लाग्या रह्‌वौ सा.

नया समाज said...

Please see the below link
we have published Reg: Maharana Pratap poem 'pather'r pithal'
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shambhu choudhary