महाराणा प्रताप एक ऐसा नाम जिसके स्मरण मात्र से ही सारे दर्द दूर हो जाते है,मन तेज़ से तरोताजा हो जाता है, और उत्साह चरम पर पहुँच जाता है। कभी कभार हमारे युवा ये उत्साह रचनात्मकता की बजाय तोड़फोड़ में ज्यादा लगाते है।बस एक जरूरत है महाराणा प्रताप को पुनः समझने की और उसे अपने जीवन में उतरने की क्योंकि उन्होंने अपनी शान मैं कभी बादशाह अकबर की तरह अकबर नामा नहीं लिखवाया था और नहीं अपने पीछे अपने त्याग को याद रखवाने के लिए कोई ताज जैसा स्मारक बनवाया था।उन्होंने जीवन भर जंगलों की ख़ाक छानी फ़िर भी दिल्ली की गुलामी स्वीकार नहीं की ये आसन काम नहीं था मगर उन्होंने इस नामुमकिन को मुमकिन बनाया और दूसरो को आत्मसम्मान के लिए जीने की प्रेरणा दी। वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी।
हिंदुआ सूरज कहे जाने वाले महाराणा प्रताप ने अकबर के खिलाफ हथियार उठाये थे इसका ये मतलब कतई नहीं है की वे हिंसा को श्रेष्ट मानते थे। वे तो बस अपनी जन्मभूमि की रक्षा के लिए अपने विरासत में मिली परम्परा को निभा रहे थे।उनके जीवन का हर पल हमारे लिए आदर्श हैं मगर सोचना ये हमको है कि क्या हम अपने जीवन में राणा प्रताप की तरह जीते है अपने दायित्वों को उतनी ही गंभीरता से निभाते है?शायद इसका जवाब नहीं ही होगा।तो बस दोस्तों आज ये प्राण हो ही जाए की कम से कम एक कोशिश तो की जा सकती हैमहाराणा प्रताप की बताई राह पर कदम रखने की कोशिश करने की ....................... ।आशा है कुछ भगत सिंह जैसे लोग के पद चिह्न जरूर दिखेंगे, जो मृत्यु की साधना में कहते थे -इतिहास में महाराणा प्रताप ने मरने की साधना की थी एक तरफ़ थी दिल्ली के महा प्रतापी सम्राट अकबर की महाशक्ति जिसके साथ वे भी थे जिनको होना चाहिए था और वे भी थे जिनको नहीं होना चाहिए था बुद्धि कहती थी टक्कर असंभव है, गणित कहता था विजय असंभव है समज्दर कहते थे रुक जाओ, रिश्तेदार कहते थे झुक जाओ राणा प्रताप न बुद्धि को ग़लत मानते थे और न ही गणित के विरिधि थे, न समझदारों का प्रतिकार करते थे और न ही रिश्तेदारों को इनकार पर वे कहते थे - " जब तक मनुष्य की तरह सम्मान के साथ जीना असंभव हो,तब मनुष्य की तरह सम्मान से मर तो सकते है। बिना कहे शायद उनके मन में था कि मनुष्य की तरह से मरकर हम आने वाली पीढियों के लिए जीवन द्वार खुला छोडें, कुत्तों की तरह पूंछ हिलाकर जीते हुए बंद न कर जाएं।
-युग पुरूष भगत सिंह
सौजन्य:- हिन्दी स्केम
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