Saturday, June 7, 2008

दोष नहीं बच्चों का, गलती बडों की है

परसों की बात है मेरी एक दोस्त राजस्थान पत्रिका के भोपाल संसकरण मैं काम करती है जिसका ऑफिस चेतक ब्रिज के पास है. उसके घर पर छोटे भाई ने पता पूछा तो उसने बताया कि चेतक ब्रिज तो उसके लिए ये मजाक का विषय बन गया इसका कारण उसके सुनने में हुयी त्रुटी रही हो या फ़िर हमारी इस बदली हुयी शिक्षा का नतीजा उसका जवाब था क्या आपका ऑफिस तो चेचक ब्रिज के पास है यानि आपके ऑफिस में चिकन पोक्स भी रहता है
उस बच्चे को शायद महाराणा प्रताप के बरे में पता होगा या नहीं मगर उसे ये बात तो पक्की है कि उसे चेतक के बरे में दयां नहीं था ये है ना हमारे लिए शर्म की बात यदि नहीं तो इससे बुरे और किस हालत की उम्मीद कर रहे है आप ।

वक्त के साथ सबकुछ बदल रहा है लोग बदले, सरकारें बदली,जनता की विचारधारा बदली और शायद इसी बदली विचारधारा का नतीजा है कि हमारे स्कूली बच्चों के कोर्स भी बदले जा रहे है।
मेरा अपनी दोस्त से पहला सवाल यहीं था कि क्या वह कान्वेंट स्कूल में पढ़ता है तो उसका उत्तर सकारात्मक था आज दशा यह है कि हमारे बच्चे चिकन पोक्स में समझते है उर उन्हें महाराणा प्रताप के घोडे का नाम मालूम नहीं है या फ़िर उनके इन्ट्रेस्ट में शामिल नहीं है ।
हम तो सरकारी स्कूलों में पढे है जहाँ सर छिपाने के लिए छत नहीं होती थी मगर वहां से सर उठाने का सबक जर्रोर मिला था वहां खाने के लिए बड़ा पैकेट नहीं होता था मगर भरपेट संस्कार जरूर मिले थे ।
हाँ मैं ये स्वीकारता हूँ कि हमे पर्सनालिटी के जैसा कुछ बताया नहीं गया था फ़िर भी देशभक्ति की प्रेरणा उसी विद्या के मन्दिर में मिली है मगर आज क्या हो रहा है ..............
उससे आप भी वाकिफ है ?
आज किताबों में हेरी पोर्टर को महत्व दिया जाता है पंचतंत्र को नहीं, मिक्की माउस के बरे में बताया जाता है महाराणा प्रताप के बारे में नहीं, फ़िर कैसे पता चलेगा? सब दोष हमारा ही है हमने अपनी शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर ऐसी दुकाने खोल डाली है जहाँ न ही तो ज्ञान है और ना ही संस्कार और ना ही अपनी परम्परा कि कोई सार्थक शिक्षा।
इसके साथ अब एक और दुख वाली बात ये है कि हमारे सरकारी स्कूलों को भी अब भारतीय आदर्शों को पढ़ने में शर्म आने लगी है।
अगर बात राजस्थान की करें तो यहाँ आज से पन्द्रह बीस साल पहले विद्यालयों में कई देशभक्ति की कविताएं कोर्स का हिस्सा थीं जो राजस्थान के महान योद्धों के जीवन से छात्रों को परिचय कराती थी मगर पता नहीं इस वैचारिक बदलाव की अंधी ने क्या जादू सा कर दिया कि हमारे निति निर्धारकों को उन कविताओ को पढ़ना अच्छा नहीं लगा . कई साल पहले राजस्थान बोर्ड की कक्षा सात में राजस्थान के कवि कन्हेया लाल सेठिया जी की कविता हुआ करती थी 'पिथल और पाथल' जिसे उन्होंने महाराणा प्रताप के संघर्ष के दिनों को कवि की विचारों में पिरो कर पेश किया था जिसे बाद में महज इस आधार पर हटा दिया गया कि यह इतिहास के विरुद्ध है हालांकि आज भी वह कविता जनजन की कंठाहार है मगर ये भी सत्य है कि अज ये कविता किताबों से लगाकर ई ज्ञान का खजाना कहे जाने वाले इंटरनेट पर भी ये कविता मुझे तो नहीं मिली है. पता नहीं इसका इतना बड़ा अनादर क्यों हो गया?
कक्षा पांच की किताब में पन्नाधाय का एक पाठ हुआ करता था मगर अब वह भी पता नहीं कहा गायब है? प्रायमरी कक्षाओं से महाराणा के पहरुए के नाम से गदुलिये लुहार का पाठ था शायद वह भी अभी नहीं होगा। कुछ समय पहले तक ग्यारहवीं कक्षा में महीयसी मीरां शीर्षक का खंड काव्य था मेरे से तीन साल छोटे भाई ने उस क्लास में आने पर बताया कि वह तो बदला गया है अब उसके स्थान पर यशोधरा पढाया जाता है, मेरी यशोधरा से कोई मतभेद नहीं है मगर इस राष्ट्रीयकरण की दौड़ में हम अपने बच्चों को महाराणा प्रताप,चेटक, चित्तोड़गढ़, मीरां ,पन्नाधाय, हल्दीघाटी से लगाकर दीवेर से दूर करते जा रहे है .................... ।
सौजन्य से :- स्केम चौबीसइनहिन्दी

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

सही विचार किया है आपने। आपके विचार बहुत पसन्द आये।


आप अपने ब्लाग की सूचना हिन्दी के ब्लाग-संकलकों (नारद, चिट्ठाजगत, ब्लागवाणी) आदि को दे दें तो बहुत से हिन्दी पाठकों तक आपकी बात तुरन्त पहुँच जाया करेगी।